इस लेख के माध्यम से मार्मिक कहानी प्रस्तुत कर रहे हैं। स्त्री जीवन किस प्रकार संघर्षों से परिपूर्ण होता है। जीवन भर संघर्ष और दुख को झेलते हुए एक महिला अपने घर-परिवार को चलाती है। अंत में उसकी परिणति दुखांत के रूप में , तब स्त्री जीवन का मर्म उभर कर आता है।
पूरी कहानी पढ़ने के लिए बने रहें –
एक स्त्री के जीवन की मार्मिक कहानी
सूरज की अग्नि वर्षा से पूरा गांव और शहर जल रहा है। सेठ – चौधरी अपने घरों में बैठे उबासियाँ ले रहे होंगे। मजदूरों के लिए क्या धूप और क्या छांव –
खेतों में मजदूरों का जमघट लगा है। गेहूं पक गया है , समय रहते ना काटा गया तो , खेत में ही बर्बाद हो जाएगा।
सूरज दिनभर अग्नि वर्षा करके अब धीरे-धीरे मुख मोड़ चला है। संध्या का आगमन , सूरज के ढलते होता जा रहा है। गांव से धीरे धीरे धुआं उठने लगा है चूल्हा जोड़ा गया है ताकि रात का खाना हो सके।
बिस्मिल्लाह चाचा ने आवाज दिया चल नेमत कितना काम करेगी ? सब गांव की ओर लौट रहे हैं , आज का काम रहने दे। हां चाचा चार हाथ और काट लूँ , फिर चलती हूं !
कहीं चौपाल सज गए , कहीं कीर्तन भजन , कहीं बूढ़ों का जमावड़ा। धीरे धीरे चंदा ने आसमान पर अपनी चमक बढ़ा ली। कोई चारपाई पर सो गया कोई निवाल बिछाकर लेट गया। महिलाों ने भी आंगन की धुलाई करके वहीं अपना बिछोना लगा लिया।
चंदा की ओर अपने जख्मी और चोटिल पैरों को दिखाते हुए सभी सो गए। रात भर चंदा इन मजदूरों का दर्द और थकान अपनी शीतलता से दूर कर देता है।
नेमत का संघर्ष मजदूरी कर जीवन यापन
नेमत दिन भर खेत में काम करके थक चुकी है। शरीर ताम्र वर्ण का हो गया पच्चीस की उम्र में चालीस की लगने लगी है। नेमत का शौहर निकाह के तीन साल बाद ही खुदा को प्यारा हो गया था। घर में उसकी एक औलाद थी , जिसको वह अब्दुल कहकर बुलाती थी। अब्दुल नाम उसके अब्बू मुख्तार ने दिया था। यही नाम अब उसकी पहचान हो गयी थी । पूरे घर का खर्चा नेमत , चौधरियों के खेतों में काम करके चलाती थी। जी तोड़ मेहनत करती और अपने अब्दुल का भरण पोषण करती।
दुख के दिन मे अब्दुल ही तो उसका एकमात्र सहारा था। वह इतने कष्ट सह रही थी , आखिर किसके लिए ? वह यही चाहती थी अब्दुल बड़ा होकर गृहस्ती संभाले। अपनी अम्मी को कुछ आराम दे सके , नेमत बड़ी खुदगर्ज थी। उसने अब्दुल के अच्छी परवरिश के लिए दुबारा निकाह नहीं किया।
अब्दुल को किसी प्रकार का कष्ट ना होने देती। स्वयं दूसरों के यहां मजदूरी करती।
अगर पैसों की अधिक आवश्यकता होती तो , वह बाजार में सब्जी – भाजी भी बेच लिया करती थी।
अब्दुल के तालीम का प्रबंध
अब्दुल के उम्र के लड़के अब स्कूल और मदरसों में जाने लगे थे। बिस्मिल्लाह चाचा ने नेमत को सलाह दिया , अब्दुल की तालीम के लिए मदरसे में दाखिला करवा दे।
नेमत ने अब्दुल को मदरसे में दाखिला करवा दिया।
मदरसे की पढ़ाई अब्दुल को कुछ समझ ना आती थी। नेमत मदरसे की पढ़ाई से खुश नहीं थी। वह अब्दुल को बड़ा आदमी बनाना चाहती थी। उसके शौहर ने यही सपना देखा था। एक दिन अब्दुल उसके घर का नाम रोशन करेगा। नेमत को अब्दुल की पढ़ाई की फिक्र होने लगी। उसके दोस्त , पास के अंग्रेजी स्कूल में जाया करते थे। वह लड़के पढ़ने और बातचीत करने में होशियार लगते थे।
नेमत को भी वही स्कूल भा गया
मेहनत-मजदूरी अब दुगुनी हो गई , ताकि अब्दुल की पढ़ाई करा सके। कुछ पैसे जमा थे , कुछ पैसे बिस्मिल्लाह चाचा से लिए। कुछ उधार पर प्रबंध हो गया। नेमत अब्दुल का दाखिला अंग्रेजी स्कूल में कराने पहुंची।
स्कूल के प्रधानाचार्य नेमत को जानते थे। वह यह भी जानते थे कि यह मजदूरी करती है। उन्हें फीस समय पर देने की भी चिंता थी। स्कूल ने दाखिले में आनाकानी शुरू की। नेमत ने हार नहीं माना और गांव के मुखिया को लेकर स्कूल पहुंच गई।
मुखिया को स्कूल में देख प्रिंसिपल तत्काल दाखिला देने को राजी हो गया। यहां से अब्दुल के शिक्षा की आरंभिक नींव रखी गई थी।
आवश्यकता की सभी चीजें उपलब्ध
अब्दुल , नेमत के कलेजे का टुकड़ा था । वह इसी के सहारे अपने बाकी जिंदगी को जी रही थी। जितनी मेहनत मजदूरी और कष्ट सह रही थी वह अब्दुल की परवरिश के लिए ही तो थी। किसी भी प्रकार की कोई कमी अब्दुल को ना हो , इसका ध्यान रखती थी।
दाखिले में नेमत ने उधार पर रुपया लिया था। उन सभी रुपयों को मजदूरी करके लौटा दिए। साथ ही स्कूल की फीस और आम बच्चों के तरह खर्चे , सभी जरूरत को नेमत पूरा करती। अब एक क्षण का भी विश्राम नहीं था। नेमत पहले वह एक चौधरी के यहां काम करती थी। अब वह दो-तीन घरों में और काम करने लगी।
खेत के समय खेतों में काम करती और जब कुछ समय मिलता तो बाजार में सब्जी भाजी बेच लिया करती। उसकी सारी मेहनत-मजदूरी अब्दुल के लिए ही तो थी।
स्कूल में महंगी महंगी पुस्तकें थी , नेमत ने उन पुस्तकों की कभी कमी नहीं होने दी। अब्दुल को ऐसा ना लगे कि उसके अब्बू नहीं है , इसलिए उसे किसी चीज की कमी होने देती । नेमत ही उसकी अम्मी थी और नेमत ही उसकी अब्बू थी।
अब्दुल का निकाह नजमा से
अब्दुल ने इंटरमीडिएट का एग्जाम पास कर लिया था। अब वह नौकरी की तलाश में शहर में चक्कर लगा रहा था। कहीं काम मिलने का नाम नहीं ले रहा था। थक-हार कर वह बेसुध पेड़ के नीचे लगी बेंच पर पड़ा था। बराबर से एक गाड़ी गुजरी। कुछ दूर आगे जाकर रुकी और फिर पीछे लौट कर आई।
गाड़ी का दरवाजा खोलकर – खादी की सफेद पोशाक , लाल रंग के केस , भूरे रंग के जूते पहने एक सेठ उतरा। हाथ में एक पानी की बोतल थी लड़के को धीरे से जगाया। वह लड़का डरा सहमा झटपट उठ कर खड़ा हो गया। अपनी गलती जान माफी मांगने लगा। सेठ ने ऐसे लापरवाही से सोने का कारण पूछा। लड़के ने अपना दुखड़ा सेठ को कह सुनाया।
सेठ का एक कारखाना पास में ही था , उसमें आकर मिलने के लिए कहा।
अब्दुल को कारखाने में सुपरवाइजर का काम मिल गया।
नेमत को अब अब्दुल के निकाह की चिंता सताने लगी। बिस्मिल्लाह चाचा की पोती नजमा थी। नेमत ने उसे अपनी बहु बनाने का मन बनाया हुआ था।
बिस्मिल्लाह चाचा से नजमा का निकाह अपने अब्दुल से कराने की बात कही , बिस्मिल्लाह चाचा तुरंत राजी हो गए। समय और तारीख मुकर्रर कर दोनों का निकाह पढ़ा गया।
नजमा अब नेमत की बहू हो गई थी। वह अपने अब्दुल की तरह नजमा पर अपना प्यार लुटाती थी। नजमा को शहजादी बना कर रखती। कोई भी काम हो यहां तक कि खाना बनाने का भी , वह भी नेमत खुद करती। कभी झाड़ू-पोंछा उठाने को मौका भी नहीं दिया।
समय बीते गया अब्दुल अपने काम में व्यस्त रहता।सुपरवाइज़र का काम उसे अच्छा नहीं लगता था। वह उससे बड़ा काम तलाश रहा था , मगर बड़ा काम मिलने में समय तो लगता ही है।
अब्दुल का गलत संगत होना
काम के दबाव में और साथियों के संगत में आकर अब्दुल अब दारु पीने लगा था। खाली टाइम में वह जुए का शौकीन भी हो गया था। नौकरी से जो पैसे मिलते वह जुए में हार जाता , या दारू पीकर उड़ा देता। नेमत ने आशा लगाया हुआ था , लड़का कुछ पैसे देगा , ताकि घर गृहस्ती चले।
पर ऐसा ना हुआ।
घर आकर अब्दुल , नजमा से गाली-गलौज और मारपीट करता। अम्मी के प्रति भी उसका नजरिया बदल गया था। उसके जीवन में अब अम्मी की कोई कदर नहीं थी। अम्मी अब बोझ हो गई थी ,क्योकि अब अम्मी ने कमाई करना बंद कर दिया था ।
नजमा को भी किसी काम की आदत नहीं थी। जब से ब्याह कर आई , नेमत ही सारी गृहस्ती का काम करती थी। नजमा केवल घर की शहजादी बनी हुई थी। धीरे-धीरे नजमा भी नेमत को एक-दो बात सुना देती। कितनी ही बार गाली देते हुए चुप हो जाती। वह जानती थी नेमत अगर काम करना बंद कर दे तो उसको खाना भी नसीब ना हो।
इसलिए बात इससे ज्यादा नहीं बढ़ती थी।
नेमत को जलील कर घर से निकालना
अब्दुल का अपने परिवार के प्रति बेरुखी , अम्मी को जलील करना हमेशा की आदत बन गई थी। नजमा भी अब अब्दुल की तरह रोब जमाती। उसकी हिम्मत इतनी बढ़ गई थी कि , गलती होने पर एक-दो हाथ लगा भी देती थी।
नेमत इस बात को अब्दुल से छुपा कर रखती , ताकि बात आगे ना बढ़े।
घर पर अब्दुल और नजमा ने नेमत का जीवन नरक बना दिया था।
घर का सारा काम करके भी बात-बात में जलील होती थी।
नेमत ने जो सलवार सूट अब्दुल निकाह में ख़रीदे थे , वही आज तक पहनती आ रही थी ।कभी नए की मांग नहीं की।
अब्दुल से यह भी नहीं हुआ वह नए कपड़े सिलवाकर अम्मी को दे सके।
अब्दुल की बुरी संगत ने उसे लापरवाह बना लिया था। वह घर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझता था।
कमाई के पैसे बाहर ही उड़ा दिया करता।
कुछ पैसे नजमा को देता था , जिससे घर की दाल-रोटी चल सके।
अम्मी पैसों के अभाव में बेगानी और बोझिल जान पड़ती थी।
नजमा किसी बात को लेकर नेमत से नाराज थी। नेमत को डांट रही थी , तभी अब्दुल घर में आ गया।
अब्दुल को देखकर नजमा डरी सहमी जोर-जोर से रोने लगी। अपना सारा दोष नेमत के माथे मढ़ दिया।
अब्दुल कारखाने से थका-हारा आया था। पुरानी सारी बातों को सामने करके दोनों ने नेमत की खूब पिटाई की।
जलील किया , बात बढ़ती गई , नजमा बात बढाती गई , अब्दुल अम्मी को पीटता रहा।
आज नजमा का जी हल्का हो रहा था। नेमत को जलील कर घर से बेदखल कर दिया।
यतीम खाने में पनाह
घर से बेदखल नेमत का कोई सहारा नहीं था , गांव के लोगों ने भी उसे आश्रय नहीं दिया।
वह शहर की ओर रवाना हुई , शायद शहर में उसे कोई पनाह मिल जाए।
दो घंटे की राह नाप कर नेमत शहर पहुंची।
चारों ओर भागा-दौड़ी की जिंदगी थी।
कोई एक – दूसरे का हाल जानने वाला नहीं था। प्यास से गला सुखा जा रहा था।
एक पेड़ के नीचे मटके में राहगीरों को पीने के लिए पानी रखा था।
नेमत ने मटके का ताजा ठंडा पानी पिया।
अब जाकर कुछ राहत मिली। रास्ते की धूप इतनी तीखी थी , शरीर झुलस रहा था। वही बेंच पर बैठ गई । आंखों से अपने बेटे की बेरुखी को याद करके , आंसू बह रहे थे।
जीवन के सभी यादें उसकी आंखों के सामने चल रहे थे –
छोटा सा अब्दुल
सोहर का इंतकाल
अब्दुल की पढ़ाई , शादी सब आंखों के सामने चल रहा था।
दिन-दुनिया से ध्यान हटाकर वह अपने जीवन के घटनाक्रम को याद कर रही थी।
बराबर से एक गाड़ी गुजरी। कुछ दूर आगे जाकर रुकी और फिर पीछे लौट कर आई।
गाड़ी का दरवाजा खोलकर – खादी की सफेद पोशाक , लाल रंग के केस , भूरे रंग के जूते पहने एक सेठ उतरा। हाथ में एक पानी की बोतल थी नेमत को धीरे से जगाया। नेमत अभी अपने पुराने जीवन में थी , वह भूल चुकी थी कि वह रास्ते में बैठी है। सेठ ने नेमत से परेशानी का कारण पूछा। उसके रोने का क्या कारण है जाना।
सेठ को नेमत पर दया आई , वह अपनी गाड़ी में बैठा कर एक यतीम आश्रम ले गया। वहां लगभग पच्चीस और सताई हुई महिलाएं थे। उनका दुनिया में इस आश्रम के अलावा कोई नहीं था। यहां उन्हें खाना-पीना , कपड़े-लत्ते सब मिल जाया करता था। यहां की महिलाएं और लोग ही एक दूसरे के परिवारों थे।
नेमत को यतीम खाने में पनाह मिल गई। वह सेठ को अल्लाह का फरिश्ता बताते हुए खूब-खूब दुआएं देती रही।
जुल्म का खुलासा पत्रकार द्वारा
सरकार द्वारा चलाए जा रहे मुहिम में यतीम खाने , वृद्ध आश्रम का कल्याण करना शामिल था। यतीम खाना तथा वृद्धा आश्रम पर विस्तार से रिकॉर्डिंग करने के लिए पत्रकार एक-दूसरे आश्रम का दौरा करने लगे। वहां की महिलाओं और व्यवस्था में लगे लोगों ,प्रबंधकों से उनकी राय लेते। कल्याण का मार्ग साक्षात्कार से निकलने की कोशिस करते। जिससे वह सरकार के सामने वास्तविकता को दिखा सके।
सूरजभान को यतीम खाने मे जाकर वहां की रिपोर्टिंग करने की जिम्मेदारी मिली।
झटपट एक सहयोगी दल बना जो यतीम खाने पहुंच गया। वहां के प्रबंधकों , व्यवस्था में लगे लोगों से मुलाकात कर विस्तार से यतीम खाने की कमियों को जाना। किस प्रकार सरकार उनकी मदद कर सकती है , इन सभी को अपने साक्षात्कार में दर्ज किया।
सूरजभान ने वहां रह रही महिलाओं से भी बातचीत की। सभी ने अपने दुख का कारण सूरजभान को विस्तार से बताया।
नेमत से भी साक्षात्कार हुआ , पत्रकार ने जानना चाहा वह यतीम खाने में कैसे आई ?
नेमत अपने बीते दिनों को भूल चुकी थी। सूरजभान के निरंतर आग्रह पर वह अपने जीवन के बीते दिनों को इस बात से अनजान कि , इसकी बातों को कहीं और दिखाया जाएगा खोलकर रख दिया।
सूरजभान इससे पहले इतना भावुक नहीं हुए थे , जितना आज थे। वास्तव में अगर दुख का कारण वह संतान बन जाए , जिसके लिए अपनी जिंदगी न्योछावर की हो , तो ऐसे संतान से निःसंतान रहना अच्छा है।
रिपोर्टर दल ने एक डॉक्यूमेंट्री विस्तार से तैयार की। जिसका प्रसारण टेलीविजन पर किया गया। टेलीविजन पर नेमत की दुखद कहानी को भी दिखाया गया। लोगों ने इस डॉक्यूमेंट्री की काफी सराहना की। वृद्ध आश्रम तथा यतीम खाने के सुधार के लिए मांग आरम्भ हुई।
अब्दुल की दुहाई
जबसे टेलीविजन पर नेमत के दुखद जीवन को दिखाया गया है। समाज ने उसके प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की। लोगों ने अब्दुल को काफी उलहाने दिए। समाज में काफी दुहाईयां मिलने लगी। लोग अब बात करने पर कतराते , उसने अपनी अम्मी का ऐसा हाल किया था।
जिस अम्मी ने बचपन से परवरिश की , दिन-रात मजदूरी की।
लोगों के घर नौकरी चाकरी की , ताकि अब्दुल की परवरिश हो सके।
उसने अपनी अम्मी के साथ जैसा बर्ताव किया जग हंसाई तो होनी ही थी । गांव वाले , बिस्मिल्लाह चाचा , साथ में नौकरी करने वाले दोस्त सभी अब्दुल के करामात को जान चुके थे।
अब उससे कोई बात करना नहीं चाहता था।
सेठ को भी जब अब्दुल के कारनामे का पता चला , उसने अपने कारखाने से निकाल दिया।
नेमत को यतीम खाने से छुट्टी
अब्दुल की चारों तरफ से जग हंसाई हो रही थी। सभी उससे दूर रहना चाहते थे , ताकि उसकी परवरिश किसी बच्चे पर ना पड़े। चारों तरफ से निराश हो गया था , नौकरी का कोई ठिकाना नहीं था। जहां काम मांगने जाता लोग उसे मना कर देते।
नजमा के साथ बैठकर अब्दुल ने एक प्लान बनाया। और अम्मी को लेने यतीम खाने पहुंच गया।
नेमत यतीम खाने में अब घुल-मिल गई थी।
फिर भी अपने बेटे – बहू की यादों से सदैव आती थी। वह चाहती थी कब अपने बेटे – बहू को देख सके। अगर वस में होता तो वह रोज अपने घर से हो आती।
किंतु यतीम खाने से बाहर किसी को जाने की इजाजत नहीं थी।
आज खुद बेटा – बहू यतीम खाने में उसे देखने और घर ले जाने आए थे। नेमत झटपट राजी हो गई , खुद उसके बेटे – बहू लेने आए हैं।
वहां की महिलाओं ने नेमत को समझाया , अपने बेटे बहू के झांसे में ना आए। यहां की जिंदगी उस नरक से बेहतर है। फिर भी नेमत ने नहीं माना और अपने बेटे – बहू के साथ घर चली आई।
बेटे और बहू ने साजिश के तहत अम्मी को घर लाया था।
घर लाकर अम्मी को बुरी – बुरी गालियां दी , मार पिटाई की।
तुमने जीना हराम कर दिया , कोई बात करने को राजी नहीं है।
अगर तुम्हें मरना ही था तो टीवी पर आकर हमारा नाम क्यों बताया। दोनों अम्मी पर लात – घुसों से पिटाई करते रहे।
उसी रात अम्मी को घर से बाहर निकाल दिया।
भीख मांग कर गुजारा करना
अपने बेटे-बहू की इस करतूत से नेमत का शायद मोहभंग हो गया था। वह जिस गफलत में जी रही थी , वह दूर हो गया था। शायद उसकी सहेलियों ने सही सलाह दी थी। फिर भी अपनी सहेलियों की बात नहीं मानी और बेटे-बहू के साथ घर आ गई। शायद सहेलियों का अनुभव उसके इस दुर्दशा को रोक सकती थी।
मगर अल्लाह की मर्जी !
नेमत घर से निकल कर फिर यतीम खाने पहुंची। यतीम खाने में उसकी जगह कोई और महिला आ चुकी थी।
अब किसी और महिला के लिए जगह न थी।
नेमत को इस यतीम खाने में भी सहारा न मिला। अब कोई चारा नहीं था , कहां जाए , कहां रहे और क्या करें।
इस उधेड़बुन में वह मथुरा के वृंदावन जैसे-तैसे पहुंच गई।
वहां सफेद कपड़ों में बहुत सी विधाएं भीख मांग कर अपना जीवन चलाती थी।
नेमत ने भी उन विधवा का वेश धारण किया। नेमत अब नम्रता बन गई थी ।
अपने जीवन का बचा – कुचा दिन नम्रता बनकर , भीख मांग जीने लगी।
दुनिया से रुखसत होने पर महंत द्वारा दफन की व्यवस्था
भीख मांग कर मथुरा और वृंदावन की गलियों में नम्रता का जीवन चलने लगा। दिन भर भीख मांगती और वहां की गलियों में सो जाती है। कभी आश्रम में जाकर रहती। यहां किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था , सभी को समान रूप से स्वीकार किया जाता है। नम्रता को भी यहीं आश्रय मिला था।
शरीर धीरे-धीरे वृद्ध होता गया , समय के साथ-साथ बीमारी भी बढ़ने लगी।
पैर ने ठीक प्रकार से काम करना बंद कर दिया।
धीरे-धीरे वह बेहद कमजोर हो गई।
एक दोपहर जब वह खाना-पीना खाकर आराम कर रही थी।
वह फिर कभी नही उठी। वह सदैव के लिए आंखें मूंद चुकी थी। धीरे-धीरे बात मंदिर के महंत तक पहुंची।
महंत को मालूम हुआ यह महिला मुस्लिम धर्म की है।
महंत ने अपने अनुयायियों को आदेश दिया – सही सलामत और पूरे धार्मिक रीति-रिवाज के साथ इसके शरीर को सुपुर्द ए खाक किया जाए।
ऐसा ही हुआ नम्रता के शरीर को शहर के बाहर श्मशान घाट में ले जाकर सुपुर्द ए खाक किया गया।
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लेखक की राय : –
नेमत ने जिस प्रकार अपनी जिंदगी अपने लड़के के नाम लुटा दी।
दिन-रात मेहनत करके जहां अब्दुल के जरूरतों को पूरा करती रही।
उसी अब्दुल ने किस प्रकार बेइज्जत और बेआबरू कर घर से निकाल दिया।
जिस सहारे के लिए वह जीवन भर संघर्ष करती रही। वह सहारा भी उसे नसीब नहीं हुआ। बेटे-बहु के प्रति जिस प्रकार गफलत में जिंदगी जी रही थी वह अंत समय में दूर हो गया।
वास्तविकता उसके समझ में आ चुकी थी।
अपनी जिंदगी बर्बाद करके किसी की जिंदगी संवारना अपने साथ धोखा है।
जीवन के अंतिम दिनों में जब वह यतीम खाने वापस लौट कर जाती है , वहां भी उसे सहारा नहीं मिलता। वह मथुरा वृंदावन की गलियों में भीख मांग कर जीवन यापन करने लगती है।
उसकी जिंदगी का दुखांत मात्र उसके बेटे की लापरवाही से हुई थी।
समाज में अगर इस प्रकार के बेटे हो तो निःसंतान रहना ही अच्छा है।
अपने सुख-दुख का त्याग करके किसी को खुश करना अपने जीवन की बर्बादी है।
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