आपको एक Social Story दी जा रही है। आजकल यह हर घर में हो रहा है। कुछ लोग अपने बूढ़े माता-पिता का साथ नहीं दे पा रहे हैं, और उन्हें कैसे अपने जीवन को बिताना चाहिए, उनके बारे में किसी का ध्यान नहीं है। सभी अपने जीवन में व्यस्त हैं। यह Social Story उनी हालातों के बारे में है।
“अरे घर में कोई है या नहीं! आवाज दे-दे कर थक गया. कोई आता क्यों नहीं मेरे पास. एक लोटा पानी तो दे जाओ कोई. प्यास से जान निकली जा रही है.” मैं अपनी चौकी पर बैठे-बैठे ये 5वीं बार आवाज लगा दी. मगर अभी तक कोई आया नहीं. मन अंदर-अंदर गुस्से से भर गया. उठ कर सबको कुछ भला-बुरा सुना दूँ. ये एक लोटा पानी नहीं दे सकते मुझे.
मैंने अपनी बूढ़ेपन से भरा हुआ शरीर उठाने का प्रयास किया, लेकिन हाथों का सहारा नहीं मिला, और फिर मैं धीरे-धीरे लेट गया। सिर्फ यही सहारा बचा था – “डंडा,” मेरा 6 फीट का बड़ा साथी। बुढ़ापे में, यही सहारा हो जाता है। बच्चे-बच्चियाँ तो सिर्फ जवानी के लिए होते हैं, बुढ़ापे में कोई साथ नहीं देता। जब मैं बेहिचक ‘डंडा’ को पकड़कर उठने का प्रयास किया, तो वो हिलने लगा – जो हमेशा शांत खड़ा रहता है।
“तुम पूरे दिन बक-बक करते हो। तुम्हें आराम से बैठने देना चाहिए। तुम्हारी हमेशा प्यास लगती है, देख रहे हो?” मेरे बड़े बेटे रामू की पत्नी ने पानी से भरा जुग किनारे पर रखा और आधे पानी को ज़मीन पर गिरा दिया।
“इतनी गर्मी है, प्यास तो लगेगी ही। तुम्हारे पास तो पूरा बिछावन गीला हो गया है। है,” लाठी के सहारे, मैं अब चौकी पर बैठ गया। पानी पीने के लिए अब नीचे झुकना होगा, और चौकी इतनी ऊंची हो गई है कि उतरना महाभारत से कम नहीं था। फिर भी, मैंने अपने ‘डंडा’ के सहारे उतरकर पानी पिया और बिना दांतों के मुस्कराते हुए कहा – “थोड़ा गुड़ मिल जाता तो बेहतर होता, गर्मियों में ऐसा पानी नहीं पीना चाहिए।”
“कुछ करनी-धरनी तो है नहीं, बस आदेश देना है। कभी यही लाओ, कभी वो लाओ,” वह अंदर गुस्से में बोली और चली गई।
मैं पानी को हाथ में लिये बैठा रहा, कि क्या करूं – पी जाऊं या फिर और 10 बार पुकारूं। यह बेहतर है। “गट… गट… गट…” पूरे पानी को एक ही बार में नीचे गिरा दिया।
Social Story – बुढ़ापे में कोई नही पूछता
यह गर्मी भी कुछ कम नहीं है, और यह ‘बुढ़ापा’ भी… दूसरों पर एक भार बना देता है। नहीं तो इस गर्मी में वे दिन-रात खेत में काम करते रहते थे, और कुछ बदलाव नहीं हुआ अब तक। काम को काम समझा ही नहीं आज तक। गांव में ऐसा ही सभी कहते थे – क्या कोई जादू है क्या? काम को बिना छोड़े हुए वे कभी नहीं थे। और अब! अब तो अपने शरीर की देखभाल करना मुश्किल हो गया है। बोझ पड़ गया है। बेटे पर, परिवार पर। यही वजह थी कि रामू की शादी इतने धूमधाम से हुई थी। सारे गांव वाले उसे देखते रह गए थे।
“क्या हुआ क्यों इतना चिल्ला रही हो” रामू ने अपनी पत्नी से पूछा.
“वही तुम्हारा बाप, उसे हमेशा कुछ न कुछ चाहिए ही होता है. कभी ये कभी वो. मैं तो उस से तंग आ गई हूँ.” वह अभी भी जोर जोर से चिल्ला रही थी. “सभी के मरने के समय आता है इसका पता नहीं कब आएगा. ‘बुढ्ढा’ पता नहीं किस जन्म का बदला ले रहा है. मरता भी नहीं.”
“धीरे-धीरे बोलो बाबूजी सुन लेंगे.”
“सुन ले इसीलिए तो बोल रही हूँ. उसको कुछ काम- वाम तो है नहीं बस बैठ कर फरमाइश करते रहता है. जैसे नौकर रखा है. वो मर गई. और इसको छोड़ गई. इसको पता नहीं कब मरना है.”
Social Story – बुढ़ापे में छोड़ कर चली गई
“वो मर गई. हमें भी तो अपने साथ ले जाती। हमें छोड दिया है. इस नरक में,” मेरी खराब हो चुकी आँखों में उसका चित्र बन गया। वो आकर बैठती नहीं थी, सिर्फ गुड़ और पानी लेकर आ जाती थी। अपने पैरों के दर्द को कभी भी समझा नहीं। वो हमेशा एक बार में लेकर चली जाती थी, और उसे खिलाने की आवश्यकता कभी नहीं थी। वह औरत नहीं, ‘लक्ष्मी’ थी – सच में ‘लक्ष्मी’। “वो चली गई, मगर मुझे क्यों अकेला छोड़ दिया? अगर वह मुझे अपने साथ ले जाती, तो आज मैं इस दिन को नहीं देखना पड़ता। तुम आकर देखो, तुम्हारे ही बेटे ने मेरा क्या हाल बना रखा है।”
मेरी आँखों से दो बूँदें गिर गईं और पसीने में मिल गईं। कोई नहीं देखा, न इस दर्द को और न इस आँसू को। मैंने करवट ली और पंखा हिलाने लगा। और मन में यह सवाल उठा, “बुढ़ापे का सहारा कौन?”
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